सुस्त और कमजोर अर्थ व्यवस्था को गति देने के लिए सरकार ने इस साल जो 54 फीसदी ज्यादा उधार लेने का फैसला लिया है, उसे अर्थशास्त्री बिल्कुल सही...
सुस्त और कमजोर अर्थ व्यवस्था को गति देने के लिए सरकार ने इस साल जो 54 फीसदी ज्यादा उधार लेने का फैसला लिया है, उसे अर्थशास्त्री बिल्कुल सही फैसला करार देते हैं। उनका कहना है कि यदि सरकार इसके बदले नए नोट छापती, तो अर्थव्यवस्था पर कई दूरगामी बुरे असर पड़ते। वैसे भी, कहा गया है कि किसी भी सार्वभौमिक सरकार के लिए नए नोट छापने का फैसला अंतिम उपाय होना चाहिए।
आमतौर पर कोई भी देश अपनी जीडीपी के अनुपात में नोट छापता है। यदि किसी कारणवश नए नोट छापने का फैसला लिया जाता है तो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बाजार में उसकी मुद्रा का उसकी अनुपात में डिवैल्यूएशन हो जाता है। इससे विकासशील अर्थव्यवस्था को कुछ ज्यादा ही घाटा होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि उनके यहां उद्योग-धंधे को फलने-फूलने के लिए बड़े पैमाने पर रॉ मटीरियल का आयात करना होता है। उनके करंसी का डिवैल्यूएशन होते ही इंपोर्टेड रॉ मटीरियल की लागत बढ़ जाती है। इसका असर घरेलू बाजार पर भी स्पष्ट दिखता है।
आमतौर पर विकसित देशों के बैंकों में पैसे रखने पर कोई ब्याज नहीं मिलता, उलटे कुछ पैसे देने पड़ते हैं। इसके उलट भारत जैसे देशों में बैंक जमा पर अच्छा खासा ब्याज मिलता है। इसी के लालच में अंतराष्ट्रीय निवेशक ऐसे देशों में अपनी रकम निवेश करते हैं। जैसे ही इस तरह के देश में नए नोट छापने का फैसला होता है तो अंतर्राष्ट्रीय निवेशक अपना पैसा निकालने लगते हैं क्योंकि जिस देश की मुद्रा में जितना डिवैल्यूएशन होगा, अंतर्राष्ट्रीय निवेशक को उतना ही घाटा होगा।